धर्म के चार चरण हैं जैसे–
कर्मकाण्ड–जब किसी आदमी में धार्मिकता का जन्म होता है तो पहले तो वह मंदिर,मस्जिद, गुरद्वारे या चर्च ही जाता है। बिभिन्न पूजा पाठ करता है।ज्यादातर तो यहीं अटक जाते हैं।
शास्त्रतः– अब अगर आप शिवजी को मानते हैं या कृष्ण को मानते हैं तब आपके भीतर एक जिज्ञासा पैदा होती है कि शिव क्या कहते हैं ? फिर कुछ लोग शास्त्र का अध्ययन करते हैं जैसे—गीता,रामायण,वेद,शिवसूत्र,कुरान,बाइबिल आदि। लेकिन कुछ शास्त्रों में ही अटक जाते हैं। सुबह उठे रोज गीता और कुरान पढ़ ली। परन्तु फिर भी कुछ लोगों में जिज्ञासा जगती है कि कृष्ण आत्मा को जानने की बात कर रहे हैं, वेद का अर्थ ही होता है-जानना।
गुरुतः–कुछ लोगों में फिर संदेह उत्पन्न होता है कि शास्त्र और संतो की वाणी विरोधाभासी है। कोई ऐसा आदमी मिले जो शास्त्रों में जो लिखा है,उसको अनुभव से भी जानता हो। सत्य को जानने बाला कोई मिले तब बात बने, वह गुरु की खोज में निकलता है लेकिन फिर कुछ गुरु के पूजा पाठ में अटक जाते हैं। वे भूल ही जाते हैं कि गुरु द्वार है। भारत में करीब हर व्यक्ति का कोई न कोई गुरु है लेकिन सत्य की अनुभूति कहाँ है, गुरु की पूजा और चमत्कारों से ही फुर्सत नही है।
अनुभवतः–गुरु के मार्गदर्शन में आपने साधना की अब सत्य की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है, जो तीनो सीढ़ी को पार कर जाता है वह ही सत्य के द्वार में प्रवेश पाता है। अब तक आप आत्मा और ईश्वर को मानते थे लेकिन अब आप जानते हैं। अब आत्मज्ञान को उपलब्ध हुए,अब ब्रह्म को जाना।
तो मेरी नजर में अगर कुछ भूल है तो वह है पड़ाव को मंजिल समझ लेना और उसमे ही अटक जाना। पढने सभी कक्षा एक से ही जाते हैं, इसमें क्या बुराई है लेकिन कक्षा एक में ही हमेशा को रुक जाना कोई समझदारी भी नही है।साधक हर द्वार से गुजर जाए लेकिन उसको ही पकड़कर ही न बैठ जाए। ऐसा व्यक्ति हर पड़ाव के प्रति अनुग्रह से भर जाता है। सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ जी कहते हैं–
ज्ञानी से संगत कर लेना, कुछ दूर तुम्हें ले जायेगा।
कुछ दूर शास्त्र ले जायेंगे, कुछ दूर गुरु पहुंचाएगा।
आगे पथ होगा अनजाना, एकाकी ही होगा जाना।