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नाडी-विज्ञान

नाडी-विज्ञान•••••••

आयुर्वेद अनादि, शाश्वत एवं आयु का विज्ञान है। इसकी उत्पत्ति सृष्टि की रचना के साथ हुई। जिन तत्त्वों से सृष्टि की रचना हुई, उन्हीं तत्त्वों से ही इसकी उत्पत्ति हुई। रचना एवं क्रिया का सम्पादन शरीर की प्राकृत एवं विकृत अवस्था पर सम्भव है। ब्रह्माण्ड में स्थित तत्त्वों से पञ्चभूतों द्वारा सारी सृष्टि प्राणिमात्र- जड-चेतन, स्थावर- जङ्गम, खनिज-वनस्पति यावन्मात्र समस्त वस्तुजाति की रचना हुई है।

आयुर्वेद के मूल स्तम्भ पञ्चमहाभूत ही हैं। शरीर में वात, पित्त एवं कफ के भी इन पाँच भेदों के आधार पर प्रत्येक दोष के पाँच-पाँच भेद किये गये हैं तथा उनके आधार पर शरीर में स्थान, गुण तथा कर्म का वर्णन कर इनके प्राकृत कर्म बताये हैं, यही प्राकृत कर्म जब सम रहते हैं तो प्राकृतावस्था अर्थात् स्वस्थता रहती है और इनके विकृत हो जाने पर अप्राकृतावस्था अथवा अस्वस्थता हो जाती है। चिकित्सा-सिद्धान्त में भी पञ्चमहाभूतों की प्रधानता होने से जो मूलभूत चिकित्सा है, उसमें क्षीण हुए दोष एवं महाभूतों की वृद्धि करना और जो बढ़े हुए हैं उनका ह्यास करना तथा सम का पालन करना ही चिकित्सा है।

••••••••वात•••••

शरीरस्थ वायु-दोष के शरीर के उत्तमाङ्ग से मूलाधार तक क्रमशः पाँच भेद किये हैं, जो इस प्रकार हैं-

प्राण-मूर्धा में। उदान-उर-प्रदेश में। समान – कोष्ठ में। व्यान- सर्वशरीर में। अपान – मूलाधार में।

– इनमें महाभूतों की अधिकता को यदि लें तो प्राणवायु आकाश महाभूत-प्रधान, उदान अप् महाभूत-प्रधान, समान तैजस महाभूत-प्रधान, व्यान वायु महाभूत-प्रधान तथा अपान पृथ्वी महाभूत-प्रधान हैं।

•••••••पित्त••••••

शरीर के उत्तमाङ्गसे अधोभाग तक महाभूतों की प्रधानता से पाँच भेद किये गये हैं, जैसे-

आलोचक – नेत्र, तैजस महाभूत-प्रधान ।

साधक- हृदय, आकाश महाभूत-प्रधान ।

पाचक-कोष्ठ, पृथ्वी तत्त्व-प्रधान।

रंजक- यकृत्, प्लीहा, अप् महाभूत-प्रधान ।

भ्राजक- सर्वशरीरगत त्वक् वायु महाभूत-प्रधान।

•••••••••कफ•••••••

इसी प्रकार कफ के भी पाँच रूप-भेद हैं-

बोधक-जिह्वा में, तैजस महाभूत-प्रधान।

क्लेदक-आमाशय में, अप् महाभूत-प्रधान।

अवलम्बक – हृदय में, पृथ्वी महाभूत-प्रधान।

तर्पक – इन्द्रियों में, आकाश महाभूत-प्रधान।

श्लेषक-संधियों में, वायु महाभूत-प्रधान।

इस प्रकार हम देखते हैं कि शरीर में सबके स्थान नियत हैं और प्रत्येक के कर्म भी शास्त्र में वर्णित हैं। नाडी- परीक्षण से पूर्व इनका ज्ञान होना नितान्त आवश्यक है; क्योंकि नाडी-ज्ञान इनके बिना सम्भव नहीं।

पुरुष के दायें हाथ एवं स्त्री के बायें हाथ के अंगुष्ठ- मूल से कुछ दूरी पर तर्जनी, मध्यमा, अनामिका अँगुलियों को क्रमशः रख कर कूर्पर-संधि को आश्रित न रखते हुए ९० डिग्री के कोण पर चिकित्सक ध्यानस्थ हो हृदय से आने वाले स्पन्दन का अनुभव करे। तर्जनी, मध्यमा तथा अनामिका के स्पन्दनों को तरतम-विधि से ज्ञात करके प्रत्येक अँगुली के नीचे पाँचों भेदों को तर्जनी के नीचे पाँचों वायु, मध्यमा के नीचे पाँचों पित्त तथा अनामिका के नीचे पाँचों कफ का ज्ञान प्राप्त करे और उनके स्थान एवं कर्म का ज्ञान होने पर उनसे होने वाले कर्मों के लक्षणवाली व्याधिका होना सुनिश्चित करे। किसी कर्म को प्रश्न के रूप में पूछने पर उसकी यथार्थता का ज्ञान करे। दोष-भेद से भी नाडी-परीक्षा की जाती है। दोषों के अंशांश की वृद्धि (भेद-स्वरूप) तर्जनी, मध्यमा तथा अनामिका के स्पर्श में स्पष्ट तरङ्गित होती है।

नाडी एवं नाडी-ज्ञान द्वारा रोग का ज्ञान प्राप्त करना एक असाधारण कार्य है। इसके लिये विपुल समय, ज्ञान एवं विपुल अनुभव की अपेक्षा है। यहाँ अत्यन्त सूक्ष्म रूप में दिशा-निर्देश किया गया है।

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