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तीर्थ यात्रा का महत्त्व

तीर्थ यात्रा का महत्त्व

“तीर्थ” शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है जो ‘त्र‘ धातु में ‘थक ‘ प्रत्यय के योग से बना है।
इसका अर्थ है- “पाप से तारने वाला या भव सागर से पार उतारने वाला” संस्कृत भाषा की एक उक्ति भी तीर्थ शब्द का ऐसा ही अर्थ व्यक्त करती है-
“तारयितुम समर्थः इति तीर्थः”
अर्थात् जो तार देने या पार कर देने में समर्थ है; वही तीर्थ है।
पद्मपुराण में भी एक स्थान पर इसी उक्ति का सत्यापन हुआ है—
तस्मात् तीर्थेषु गन्तव्यः नर संसारभीरुभिः।
पुण्योदकेषु सततं साधु श्रेणी विराजेषु॥

यात्रा का अर्थ है –
“याति त्राति रक्षतीति यात्रा” जो रक्षापूर्वक अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति कराती है, वही यात्रा है।
तीर्थ यात्रा—
जिससे धर्म, काम और मोक्ष तीन अर्थों की सिद्धि प्राप्त होती है उसे तीर्थ यात्रा कहते है, तीर्थ ‘ती’ और ‘र्थ’ से बना है, इसका अर्थ होता है तीन तरह के काम की सिद्धि, व्यक्ति पूरा जीवन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति में लगा देता है।
इन चारों में अर्थ (धन) तो तीर्थ यात्रा करने में खर्च होता है, धन को छोड़कर धर्म, काम और मोक्ष तीर्थ यात्रा से पा सकते हैं, लेकिन खर्च होने वाला धन, विवेक, ज्ञान और कर्म प्राप्त कर सकते हैं, जो व्यक्ति निष्काम भाव से यात्रा करते हैं। केवल उन्हें ही मोक्ष प्राप्त होता है, जो व्यक्ति सकाम भाव से तीर्थ यात्रा करते है, उन्हें इस लोक में स्त्री- पुत्र आदि और परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
पुण्य पाप की भावना सभी धर्मों में हैं, इस भावना का, तीर्थ का अभिप्राय है पुण्य स्थान, अर्थात् जो अपने में पुनीत हो और अपने यहाँ आने वालों में भी पवित्रता का संचार कर सके, उस नदी, सरोवर, मंदिर या भूमि को तीर्थ कहा जाता है, जहां ऐसी दिव्य शक्तियां है कि उनके संपर्क में जाने से मनुष्य के पाप अज्ञात रूप से नष्ट हो जाते हैं।
एक अन्य स्थान पर गुरु तीर्थ , माता – पिता तीर्थ आदि का वर्णन भी आया है।
गुरु शिष्य को शिक्षा प्रदान कर उसके अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर देता है, अतः शिष्य के लिए गुरु तीर्थ है।
माता – पिता अपने पुत्र के इहलोक एवं परलोक को सुधारने में सबसे अधिक योगदान करते हैं। अतः पुत्र के लिए माता – पिता तीर्थ हैं;
पत्नी के लिए उसका पति परमतीर्थ है ।
यदि सच्चे मन और आत्म कल्याण की भावना से तीर्थ यात्रा की जाती है और धर्मानुकूल आचरण करते हुए तीर्थ दर्शन किए जाते है तो मनुष्य उस यात्राकाल के दौरान एक अलग मानसिक उर्जा की अनुभूति भी करता है, जो उसे संसारिक भोगों से दूर कर निष्काम भाव से ईश्वर की आराधना के लिए प्रेरित करती है, जो कि उसके आत्म कल्याण में सहायक बनती है—
“तरति संसार महार्णवं येन तत्तीर्थमिति”

तीर्थों की तीन श्रेणियां निर्धारित की गई हैं–
नित्य तीर्थ—
काशी कैलास मानसरोवर आदि तीर्थों को नित्य तीर्थ कहा गया है इन तीर्थों में सृष्टि के प्रारंभकाल से ही दिव्य पावनकारिणी शक्ति रही हैं, इसी प्रकार गंगा, यमुना, नर्मदा (रेवा) गोदावरी एवं कावेरी नदियां भी नित्यतीर्थ मानी गई हैं।

भगवदीय तीर्थ—
जिन-जिन स्थानों पर ईश्वर ने अवतार लिए, जहां उन्होंने कोई लीला की या जहां उन्होंने किसी भक्त को दर्शन दिए वे भगवदीय तीर्थ कहे जाते हैं। अयोध्या, मथुरा व रामेश्वरम् आदि तीर्थ भगवदीय तीर्थ हैं।

संत तीर्थ—
जो जीवनमुक्त, देहातीत, परम भागवत अथवा भगवत्प्रेम में तन्मय संत हैं, उनका शरीर भले ही पंचभूतिक तथा नश्वर हो, किंतु उस देह में संत के दिव्य गुण ओत प्रोत हैं, उनके शरीर से निरंतर दिव्य गुणों का प्रवाह होता रहता है, इस प्रकार ऐसे संत के चरण जहां – जहां पडते हैं, वह स्थान तीर्थरूप हो जाता है। संत की जन्मभूमि, साधन भूमि एवं निर्वाण भूमि भी तीर्थ हो जाती है इस प्रकार वे संत तीर्थ हो जाते हैं ।

भगवान के द्वारा पवित्र किये गये स्थानों का विशेष महात्म्य होता है। भगवान वहाँ प्रकट हुए, खेले, बड़े हुए, लीलाएँ की व अंतर्ध्यान हो गये, तभी साधारण स्थान तपोभूमि व तीर्थस्थल बन जाते हैं।
इन्द्रियों को प्रतिकूल विषयो से हटाकर अनुकूल विषयो मे
लगाना ही यात्रा है, तीर्थयात्रा उसी की सफल होती है जो तीर्थों जैसा पवित्र होकर लौटता है, यात्रा विधि पूर्वक करना चाहिए।
यात्रा पर निकलने से पूर्व प्रतिज्ञा करना चाहिए कि अब मैं ब्रह्मचर्य का पालन करुँगा, कभी क्रोध नहीं करुँगा, असत्य नही बोलूँगा, व्यर्थ भाषण नहीं करुँगा, तीर्थों के साधू सन्तों की निन्दा करने वालों को तीर्थ यात्रा का पुण्य नहीं मिल सकता।
जो केवल स्नान करने के लिए पवित्र तीर्थो की यात्रा करते हैं, ऋषियों, मुनियों तथा महात्मा जैसे महाजनों की संगति कभी नहीं करते ऐसे व्यक्ति मानव शरीर धारी होते हुए भी गधे के समान एक पशु के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं, लोग यात्रा करने निकलते है तो छत्तीस चीजें साथ लेकर चलते है। आवश्यकता कम करने से पाप भी घटते रहेंगे और जरुरत बढ़ाने पाप भी बढ़ते रहेंगे, प्राप्त स्थिति से असंतोष का अनुभव ही मनुष्य को पाप प्रेरणा देता है, इसलिए कहा है कि “पाप का पिता असंतोष और लोभ है।”
कोई निन्दा करे, अपमान करे तो उसे सह लेने पाप निन्दक के पास चला जाएगा और उसका पुण्य मिलेगा, तीर्थ मे जाने पर उस दिन उपवास करना चाहिए, इससे शरीर की शुद्धि होती है और पाप जल जाते है और सात्विक भाव जाग्रत होता है।
तीर्थ स्थानो पर जाने वहाँ स्नान करने तथा मन्दिरों में श्रीमूर्तियों का दर्शन करके कोई स्वयं को निर्मल नहीं कर सकता किन्तु यदि उसे किसी महान भक्त, श्री भगवान के प्रतिनिधि महात्मा से मिलने का सौभाग्य प्राप्त होता है तो वह तत्काल ही निर्मल हो जाता है, निर्मल होने के लिए अग्नि, सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, जल, वायु, आकाश तथा मन की उपासना करने का विधान है।
यात्रा किस प्रकार करना चाहिए – “पृथ्वी पर अवधूत वेष में परिभ्रमण करे, जिससे स्नेही-सम्बन्धी उन्हें पहचान ना सकें, शरीर का श्रृंगार भी न करे, अल्पमात्रा में बिलकुल पवित्र भोजन करे, शुद्ध वृत्ति से जीवन निर्वाह करे, प्रत्येक तीर्थ में स्नान करे, भूमि पर ही शयन करे व भगवान जिनसे प्रसन्न हों ऐसे व्रत करे।”
समस्त तत्वों तथा उनके अधिष्ठाता देवताओं की उपासना द्वारा व्यक्ति द्वेष-भाव से मुक्त हो जाता है, किन्तु एक विद्वेषी व्यक्ति के सभी पाप केवल किसी महात्मा की सेवा करने से ही नष्ट हो जाते हैं।
गुरु शब्द का अपभ्रंश है — गोर।
कुछ ऐसे भी धनिक लोग है जो गोर (तीर्थ पुरोहित) को पत्र लिखकर सूचित कर देते है कि हम इतने लोग यात्रा के लिए आ रहे है, इसलिए भोजन आदि की व्यवस्था कर देना, और धन के अहंकार मे तीर्थो को मनोरंजन एवं समय बिताने का स्थान समझने लगते हैं, ऐसे तो कौआ भी काशी मथुरा आदि घूम आता होगा।
महाप्रभु जी दुःख से कहते हैं कि “अतिशय विलासी और पापी लोग तीर्थ स्थानो मे जाकर रहने लगे जिससे तीर्थों की महिमा घटने लगी है।”
काशी का महात्म्य भी अधिक है, यहाँ के प्रमुख देव भैरवनाथ है—
“विश्वेशं माधवं ढुण्डिं दण्डपाणिं च भैरवम्।
वन्दे काशीं गुहां गङ्गां भवानीं मणिकर्णिकाम्॥
ऐसा कहा जाता है कि काशी मे नवमास रहने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता—-
‘मरणं मंगलं यत्र विभूतिर्यत्र भूषणम्।
कौपीनं यत्र कौशेयं, काशी कुत्रोपमीयते।।’
काशी में मरण ही मंगलप्रद, विभूति ही भूषण तथा कौपीन ही पीताम्बर है, ऐसी काशी की उपमा किससे दी जाय?
शिवजी ज्ञान के मुख्य देव है, श्मशानभूमि ज्ञानभूमि है, बार बार श्मशान भूमि का चिन्तन करने से बुद्धि में परिवर्तन होगा।
तीर्थ क्षेत्रों मे गया जी प्रसिद्ध है,जहाँ प्रथम श्राद्ध फल्गु तट पर, अन्तिम श्राद्ध अक्षयवट के तले होता है, जहाँ करारविन्द तथा पादारविन्द वाले बालकृष्ण निवास करते हैं—
“करारविन्देन पदारविन्दं
मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्।
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं
बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि।।”
जिन्होंने अपने करकमल से चरणकमल को पकड़ कर उसके अंगूठे को अपने मुखकमल में डाल रखा है और जो वटवृक्ष के एक पर्णपुट (पत्ते के दोने) पर शयन कर रहे हैं, ऐसे बाल मुकुन्द का मैं मन से स्मरण करता हूँ।
यहाँ पर किसी एक वस्तु का त्याग करना होता है जिसमें लोग अरुचिकर भौतिक वस्तु का त्याग करते हैं।
“किन्तु वास्तविक त्याग तो काम,क्रोध,लोभ,मद,मत्सर आदि का करना है।”
अतिसम्पत्ति अनर्थ का मूल है–
अर्थमनर्थं भावय नित्यं,
नास्ति ततः सुखलेश:सत्यम्।
पुत्रादपि धनभाजां भीतिः
सर्वत्रैषा विहिता रीतिः॥
धन दुःख का मूल कारण है,यह सत्य जान लो कि धन से तनिक भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता, धनवान व्यक्ति को कभी-कभी अपने पुत्र से भी भय लगता है, यही स्थिति सर्वत्र दिखाई देती है।
इसीलिए भगवान द्वारिकाधीश ने सुवर्ण की द्वारिका जल मे डुबा दी।
द्वारिका में “लोभ का त्याग”।
अयोध्या में श्रीराम के दर्शनोपरांत “तृष्णा का त्याग”। काशीविश्वनाथ के दर्शनोपरांत “काम का त्याग”।
गया में “पाप और विकार का त्याग”।
गोकुल मथुरा में “क्रोध का त्याग” करना चाहिए।
काशी ज्ञानभूमि, अयोध्या वैराग्य भूमि, व्रज प्रेमभूमि है।
नर्मदा तट तपोभूमि है—
रेवातीरे तपः कुर्यात्, मरणं जाह्नवीतटे।
दानं दद्यात् कुरुक्षेत्रे तत्सर्वं गौतमीतटे।।
नर्मदा तट पर ज्ञान, वैराग्य और भक्ति तीनों सिद्ध हो सकते हैं, तीर्थों मे काम, क्रोध आदि का त्याग करने पर ही तीर्थ यात्रा का फल मिलेगा।

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