एकहि कुल की शाख दो, ब्राह्मण औरहु गाय। रहें एक में मन्त्र सब, अनतहि हवि ठहराय।।
ब्राह्मण और गौ- ये दोनों एक ही कुल के दो भाग किये गये हैं; क्योंकि एक में तो मन्त्रों की स्थिति है और दूसरे में हवि (घी) रहता है।
एकहि कुल की शाख दो, ब्राह्मण औरहु गाय।
रहें एक में मन्त्र सब, अनतहि हवि ठहराय।।
रिपोर्ट : प्रदीप शुक्ल, ब्यूरो चीफ – युटीवी खबर
सनातन की धरा भारत वर्ष में जैसे ही सनातन परंपरा प्राप्त सर्वोच्च पीठों से परम् पूज्य जगतगुरु एवं धर्मगुरुओं और धर्मनिष्ठ विद्वानों ब्राह्मणों और सनातनियों ने गौ रक्षा एवं गौ माता राष्ट्रमाता घोषित करने की मांग के महाअभियान को देख कर विधर्मियों के साथ साथ कुछ कथित सनातन धर्मी और विद्वानों ब्राह्मणों और राजनैतिक दलों के जनप्रतिनिधियों के पेट में मरोड़ होने लगी हैं, जबकि उन्हें ज्ञान ही नहीं कि स्कंदपुराण काशीखण्ड के अनुसार ब्रह्मा जी कहते है–
विष्णोर्वाममवाशंभोर्ब्राह्मणा एव सुप्रियाः ।
तेषां मूर्त्या वयं साक्षाद्विचरामो महीतले ।। ७४
ब्राह्मण ही विष्णु के, शिव के और मेरे बड़े प्यारे हैं; (क्योंकि) उन्हीं की मूर्ति द्वारा हम सब महीतल पर साक्षात् विचरण करते हैं।
ब्राह्मणाश्चैव गावश्च कुलमेकं द्विधाकृतम् ।
एकत्र मंत्रास्तिष्ठंति हविरेकत्र तिष्ठति ।। ७५
ब्राह्मण और गौ- ये दोनों एक ही कुल के दो भाग किये गये हैं; क्योंकि एक में तो मन्त्रों की स्थिति है और दूसरे में हवि (घी) रहता है।
ब्राह्मणा जंगमं तीर्थं निर्मितं सार्वभौमिकम् ।
येषां वाक्योदकेनैव शुद्ध्यन्ति मलिना जनाः ।। ७६
ब्राह्मण लोग ही सार्वभौमिक जंगम तीर्थ बनाये गये हैं, कारण, उन्हीं लोगों के वचनरूप जल से मलिनजन शुद्ध होते हैं ।
गावः पवित्रमतुलं गावो मंगलमुत्तमम् ।
यासां खुरोत्थितो रेणुर्गंगावारिसमो भवेत् ।। ७७
शृंगाग्रे सर्वतीर्थानि खुराग्रे सर्व पर्वताः ।
शृंगयोरंतरे यस्याः साक्षाद्गौरीमहेश्वरी ।। ७८
गायें परम पवित्र होती हैं, गायों के समान कोई उत्तम मंगल नहीं है; क्योंकि उनके खुर की उड़ी हुई धूलि गंगाजल के समान पवित्र होती है । उनके श्रृंग पर समग्र तीर्थ, खुर के अग्रभाग में समस्त पर्वत, और दोनों सींगों के बीच में साक्षात् महेश्वरी गौरी वास करती हैं।
दीयमानां च गां दृष्ट्वा नृत्यंति प्रपितामहाः ।
प्रीयंते ऋषयः सर्वे तुष्यामो दैवतैः सह ।। ७९
गौ का दान होते देखकर दाता के पितरगण हर्ष से नाचने लगते हैं, ऋषि लोग प्रसन्न हो जाते हैं और सब देवतानों के साथ हम लोग भी सन्तुष्ट होते हैं।
रोरूयन्ते च पापानि दारिद्र्यं व्याधिभिः सह ।
धात्र्यः सर्वस्य लोकस्य गावो मातेव सर्वथा ।। ८०
परम दरिद्रता और व्याधियों के सहित पापगण रोदन करने लगते हैं। सब लोगों का पालन करने वाली गायें सर्वथा माता के ही समान हैं।
गवां स्तुत्वा नमस्कृत्य कृत्वा चैव प्र दक्षिणाम्।
प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तद्वीपा वसुन्धरा ।। ८१
जो कोई गौओं की स्तुति, प्रणाम, प्रदक्षिणा करता है, उसे सप्तद्वीपा वसुन्धरा की प्रदक्षिणा करने का फल मिल जाता है।
या लक्ष्मीः सवर्भूतानां या देवेषु व्यवस्थिता ।
धेनुरूपेण सा देवी मम पापं व्यपोहतु ।। ८२
जो सब भूतों की लक्ष्मी है और जिसकी व्यवस्था (गिनती) देवताओं में की गयी है, वह धेनुरूपा देवी मेरे पापों को दूर करे ।
विष्णोर्वक्षसि या लक्ष्मीः स्वाहा चैव विभावसोः ।
स्वधा या पितृमुख्यानां सा धेनुर्वरदा सदा ।। ८३
जो लक्ष्मी विष्णु के वक्षस्थल पर रहती है, जो अग्नि देव की स्वाहा है एवं जो पितृप्रधानों की स्वधारूपा है, वही धेनु हम लोगों को सदैव वरदान करे।
गोमयं यमुना साक्षाद्गोमूत्रं नर्मदा शुभा ।
गंगा क्षीरं तु यासां वै किं पवित्रमतः परम् ।। ८४
जिनका गोमय (गोबर) साक्षात् यमुना है, मूत्र पवित्र नर्मदा के समान है एवं जिनका दुग्ध गंगा के सदृश है, उनसे बढ़कर और क्या पवित्र हो सकता है?
गवामङ्गेषु तिष्ठन्ति भुवनानि चतुर्दश।
यस्मात्तस्माच्छिवं मे स्यादिहलोके परत्र च ।। ८५
जिस कारण से गौओं के अंगों में चौदहों भुवन वास करते हैं, उसी कारण से (गौओं के द्वारा) इस लोक और परलोक में मेरा कल्याण हो ।
इति मन्त्रं समुच्चार्य धेनूर्वाधेनुमेव वा ।
यो दद्याद्द्विजवर्याय स सर्वेभ्यो विशिष्यते ।। ८६
जो कोई इस मन्त्र का उच्चारण करके अनेक अथवा एक भी गौ का दान उत्तम ब्राह्मण को कर देता है, वह सब लोगों में विशेष समझा जाता है।
मया च विष्णुना सार्धं शिवेन च महर्षिभिः।
विचार्य गोगुणान्नित्यं प्रार्थनेति विधीयते ।। ८७
मैं विष्णु, शिव और महर्षियों के सहित गौओं के गुणों को विचार कर नित्य ही यह प्रार्थना करता रहता हूँ ।
गावो मे पुरतः सन्तु गावो मे सन्तु पृष्ठतः।
गावो मे हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम्।। ८८
गायें मेरे सन्मुख रहें, गायें मेरे पीछे रहें, गायें मेरे हृदय में रहे और मैं गौओं ही के बीच में वास करूँ।
नीराजयति योङ्गानि गवां पुच्छेन भाग्यवान् ।
अलक्ष्मीः कलहो रोगास्तस्याङ्गाद्यान्ति दूरतः।।८९
जो भाग्यवान् गौओं की पूंछ से अपने शरीर को पोछता है (मार्जित करता है), उसके अंगों से दरिद्रता, कलह और रोग दूर हो जाते हैं ।
गोभिर्विप्रश्च वेदैश्च सतीभिः सत्यवादिभिः।
अलुब्धैर्दा नशीलैश्च सप्तभिर्धार्यते मही।।९०
गौ, ब्राह्मण, वेद, सती स्त्री, सत्यवादी पुरुष, निर्लोभी और दानशील इन्हीं सातों के भरोसे पृथिवी थमी रहती है।
मम लोकात्परोलोको वैकुंठ इति गीयते।
तस्योपरिष्टात्कौमार उमालोकस्ततः परम्।।९१
मेरे इस लोक के ऊपर जो लोक है, वह वैकुण्ठ कहा जाता है। उसके ऊपर कुमार लोक है। उसके भी ऊपर उमा लोक है ।
शिवलोकस्तदुपरि गोलो कस्तत्समीपतः ।
गोमातरः सुशीलाद्यास्तत्र संति शिवप्रियाः ।। ९२
उसके उपरान्त शिवलोक है। उसके पास में गोलोक है। वहाँ पर जो सुशीला आदि गौ माताएँ हैं। वे महादेव को बहुत ही प्रिय हैं।
गवां शुश्रूरूषकाये च गोप्रदाये च मानवाः ।
एषामन्यतमे लोके ते स्युः सर्वसमृद्धयः ।। ९३
गौओं की सेवा करनेवालों तथा गौओं के दाता मनुष्य इन्हीं लोकों के मध्य से किसी एक लोक में सब समृद्धियों से परिपूर्ण होकर वास करते हैं ।
यत्र क्षीरवहा नद्यो यत्र पायस कर्दमाः ।
न जरा बाधते यत्र तत्र गच्छंति गोप्रदाः ।। ९४
जहाँ पर दूध की धारा बहाने वाली नदियाँ हैं और जहाँ पायस (खीर) का कीचड़ बना रहता है, फिर जहाँ पर जरा (बुढ़ापा) कुछ बाधा नहीं दे सकती। गोदान करनेवाले लोग वहाँ पर ही जाते हैं।
श्रुतिस्मृतिपुराणज्ञा ब्राह्मणाः परिकीर्तिताः।
तदुक्ताचारचरणा इतरे नामधारकाः।।९५
श्रुति, स्मृति और पुराण के अभिज्ञ तथा तदनुसार आचार-निर्वाह करनेवाले ही यथार्थ ब्राह्मण कहे जाते हैं और दूसरे तो केवल नाममात्र के ब्राह्मण हैं ।
श्रुतिस्मृती तु नेत्रे द्वे पुराणं हृदयं स्मृतम् ।
श्रुतिस्मृतिभ्यां हीनोंधः काणः स्यादेकया विना।।९६
वेद और धर्मशास्त्र- ये दोनों तो नेत्र और पुराण हृदय कहलाता है। अतएव जो ब्राह्मण श्रुतिस्मृति से हीन होता है, वह अन्धा और जो एक से रहित हो वह काना है।
पुराणहीनाद्धृच्छून्यात्काणांधावपि तौ वरौ ।
श्रुतिस्मृत्युदितोधर्मः पुराणे परिगीयते।।९७
परंतु पुराण से अनभिज्ञ हृदय शून्य जन से काने और अन्धे दोनों ही अच्छे हैं, (कारण) श्रुति-स्मृति दोनों के कथित धर्म पुराणों में कहे जाते है।
जिसकी इच्छा धर्म जानने की हो या जिसे पाप से बड़ा डर लगता हो, उसे सब धर्मों की जड़ पुराणों को अवश्य सुनना चाहिए। चतुर्दश विद्याओं में पुराण ही सर्वोत्तम दीपक हैं; क्योंकि उनके प्रकाश से अन्धा भी संसाररूपी समुद्र में कभी नहीं गिरने पाता।