धर्म

ज्ञान चार प्रकार का है।~

ज्ञान चार प्रकार का है।~

1- विपरीत ज्ञान
2- साक्षात ज्ञान
3- परोक्ष ज्ञान
4- अपरोक्ष ज्ञान

1- वस्तु को अवस्तु समझ लेना, कुछ का कुछ समझ लेना, जैसे अपने को देह समझ लेना, यह विपरीत ज्ञान है। इसी से भ्रम की उत्पत्ति होती है। यही बंधन का मूल कारण है।

2- अपनी आँख से देख कर, कान से सुन कर, नाक से सूंघ कर, त्वचा से छू कर, जीभ से चख कर जानना, स+अक्ष जानना है, साक्षात ज्ञान है। हाथ में रखे फल जैसा प्रत्यक्ष जानना साक्षात ज्ञान है। जिस भी वस्तु का साक्षात ज्ञान होता है, वह वस्तु परिवर्तनशील होती है, मरणधर्मा होती है, जड़ होती है और मिथ्या होती है।

3- दूसरे से सुनकर जानना परोक्ष ज्ञान है।
अन्य वस्तु विषयक परोक्ष ज्ञान, जब तक साक्षात न हो, जानकारी मात्र ही है, ज्ञान नहीं है। पर कालांतर में स्वयं जान लिया जाए तो ज्ञान है।
जबकि स्व-वस्तु विषयक, आत्म विषयक परोक्ष ज्ञान भी ज्ञान है। क्योंकि आत्मा तो अगोचर, गोतीत, इन्द्रियों के पार होने से, कभी भी अन्य वस्तु सदृश साक्षात जाना नहीं जा सकता। इसीलिए अपने स्वरूप का ज्ञान, आत्मा का ज्ञान पहलेपहल जब भी होता है परोक्ष ही होता है।

4- अपरोक्ष ज्ञान वह ज्ञान है जिसके लिए आपको किसी अन्य आँख आदि साधन की अपेक्षा नहीं। इसीलिए अन्य वस्तु विषयक परोक्ष ज्ञान जब आँख आदि की सहायता से स्वयं अनुभव कर लिया जाता है, तब उसे साक्षात ज्ञान ही कहा जाता है, अपरोक्ष नहीं।
जबकी अपना आपा आत्मा स्वयं होने से, आत्मा के विषय में इन्द्रियों का अज्ञानांधकार से ग्रस्त होने से, आत्मा को आँख आदि साधन से जाना जा ही नहीं सकता। वह तो आप स्वयं ही हैं। तो उसे जानने के लिए आपको किसी साधन की अपेक्षा नहीं। वह तो स्वयं स्वयंप्रकाश ज्ञानस्वरूप साक्षात अपरोक्ष ही है। वह तो दूसरे से सुनकर ही पहले परोक्ष जाना जाता है, और आत्मचिंतन नामक महासाधन से कालांतर में यह परोक्ष ज्ञान दृढ़ होने पर अपरोक्ष ज्ञान नाम से कहा जाता है।
लोकेशानन्द का यह कहना कि तुम मरणधर्मा देह नहीं अविनाशी आत्मा हो, परोक्ष ज्ञान ही है। इसे दृढ़तापूर्वक बुद्धि में बैठा कर अपरोक्ष कर लो।

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